Saturday 30 October 2010

बच्‍चों के पालन पोषण की परंपरागत पद्धतियां ही अधिक अच्‍छी थी !!

बचपन की गल्तियों में मार पडने की बात तो लोग भूल चुके होंगे , आज के बच्‍चों को डांट फटकार भी नहीं की जाती। माता पिता या अन्‍य बडे किसी काम के लिए मना कर दिया करते हैं , तो बच्‍चों का नाराज होना स्‍वाभाविक है। पर यदि शुरूआती दौर में ही उनको गल्तियों में नहीं टोका जाए और उनकी आदतों पर ध्‍यान नहीं दिया जाए , तो आगे वे अनुशासन में नहीं रह पाते। भले ही बचपन में लाड प्‍यार अधिक पाने वाले बच्‍चे अपने आत्‍मविश्‍वास के कारण हमें सहज आकर्षित कर लेते हों , तथा डांट फटकार में जीने वाले बच्‍चे सहमे सकुचाए होने से हमें थोडा निराश करते हों, पर वह बचपन का तात्‍कालिक प्रभाव है। कहावत है 'आती बहू जन्‍मता बच्‍चा' जैसी आदत रखोगे , वैसे ही रहेंगे वो। सही ढंग से यदि अनुशासित रखने के क्रम में जिन बच्‍चों को जितनी अधिक रोक टोक होती है , उसके व्‍यक्तित्‍व का उतना ही बढिया विकास होता है और वह जीवन में उतना ही सफल होता है।

आरंभिक दौर में हर आनेवाली पीढी पिछले पीढी को विचारों में कहीं न कहीं कमजोर मानती है, क्‍यूंकि उसका ज्ञान अल्‍प होता है। जैसे जैसे उम्र और ज्ञान का दौर बढता जाता है , पुरानी पीढी द्वारा कही गयी बातों में खासियत दिखाई देने लगती है। जब मैं रोटी बेलना सीख रही थी , तो गोल न बेलने पर मम्‍मी टोका करती , जब गोल बेलना सीख गयी , तो रोटी के न सिंकने को लेकर टोकाटोकी करती। रोटी के न फूलने पर उन्‍हें संतुष्टि नहीं होती , चाहे सेंकने के क्रम में दोनो ओर से रोटी को जला भी क्‍यूं न डालूं। उनका डांटने का क्रम तबतक जारी रहा , जबतक मैं बिल्‍कुल मुलायम रोटियां न बनाने लगी। मुझे मम्‍मी का टोकना बहुत बुरा लगता, मुझे लगता कि वे जानबूझकर टोका टोकी करती हैं , इतना सेंकने पर रोटी कच्‍चा कैसे रह सकता है ? बाद में समझ में आया कि भाप का तापमान खौलते पानी से भी बहुत अधिक होता है , इसलिए रोटी फूलने पर वह बाहर के साथ साथ अंदर से भी सिंकती होगी। सिर्फ रोटी बनाने में ही नहीं अन्‍य कामों को वे जितनी सफाई से किया करती , मुझसे ही वैसी ही उम्‍मीद रखती।इसका फायदा यह हुआ कि जिम्‍मेदारी के साथ हर काम को सफाई से करना तो सीखा ही , आगे भी सीखने की ललक बनी रही। मुझे किसी भी परिस्थिति में कहीं भी समायोजन करने में दिक्‍कत नहीं आती।

आज कुछ स्‍कूलों की अच्‍छी पढाई की वजह से भले ही शिक्षा और कैरियर को युवा गंभीरता से लेते हैं , पर बाकी मामलों में आज की पीढी अपने अभिभावकों से सिर्फ प्‍यार पाकर बहुत बिगड गयी है। माता पिता अपने कैरियर की चिंता में व्‍यस्‍त बच्‍चों को स्‍वास्‍थ्‍य तक का ख्‍याल नहीं रख रहे , लेकिन उसकी उल्‍टी सीधी जिद जरूर पूरी कर रहहे हैं। उन्‍हें कभी डांट फटकार नहीं पडती , उनका पक्ष लेकर दूसरे के बच्‍चों और पडोसी तक को डांट देते हैं। अपने बच्‍चों पर गजब का विश्‍वास होता है उनका , उनकी गल्‍ती स्‍वीकारने को कतई तैयार नहीं होते। आज के अभिभावक बिल्‍कुल नहीं चाहते कि बच्‍चें के आसपास के वातावरण में ऐसी कोई बात हो , जिससे उनके दिमाग पर बुरा प्रभाव पडे। अपने को कष्‍ट में रखकर भी बच्‍चों के सुख की ही चिंता करते हैं। वैसे बच्‍चे जब युवा बनते हैं , अपने सुख के आगे किसी के कष्‍ट की उन्‍हें कोई फिक्र नहीं होती , यहां तक कि अपने माता पिता के प्रति जिम्‍मेदारी का भी उन्‍हें कोई ख्‍याल नहीं रहता। इसके अतिरिक्‍त समस्‍याओं से जूझने की युवाओं की प्रतिरोधक क्षमता समाप्‍त होती जा रही है और जिस दिन भी उसके सम्‍मुख समस्‍याएं आती हैं , वो इसे नहीं झेल पाते हैं। ज्‍योतिषियों और मनोचिकित्‍सक के पास मरीजों की बढती हुई संख्‍या इसकी गवाह है।  

अपने पालन पोषण की गलत नीतियों के कारण ही आज के सभी अभिभावक अपने बाल बच्‍चों के द्वारा अपनी देख रेख की उम्‍मीद ही छोड चुके हैं। यदि किसी ने बच्‍चों को अपनी जिम्‍मेदारी का अहसास कराते हुए अपने बच्‍चों का पालन पोषण किया भी है , तो वैवाहिक संबंध बनाते वक्‍त उनसे चूक हो जाती है। जिम्‍मेदारी के प्रति पार्टनर के गंभीर न होने से भी आज के समझदार युवा के समक्ष एक अलग मुसीबत खडी हो जाती है। माता पिता या अपने सुख में से एक को चुनने की उसकी विवशता होती है , उसे आंखे मूंदकर किसी एक को स्‍वीकार करना है। अपना सुख चुने या माता पिता का , कोई भी सबको सं‍तुष्टि नहीं दे पाता , स्थिति वैसी की वैसी ही बनी रह जाती है। यदि तबतक बच्‍चे हो गए हों , तो माता पिता को छोडकर मजबूरन उन्‍हें स्‍वार्थी बनना पडता है। आनेवाले समय में रिश्‍तों की और भयावह स्थिति उपस्थित होनेवाली है , ऐसी दशा में सभी अभिभावको से निवेदन है कि वे बच्‍चे को अपने स्‍वास्‍थ्‍य के प्रति ,परिवार और समाज के प्रति जिम्‍मेदार बनने की सीख दें। हममें से कोई भी समाज से अलग नहीं है , हम जैसा बोएंगे , वैसा ही तो काटेंगे और बोने और काटने का यह सिलसिला लगातार चलता रहेगा, जो आनेवाले युग के लिए बहुत बुरा होगा।

12 comments:

अन्तर सोहिल said...

बहुत अच्छी बात कही जी
लाड-प्यार में बच्चों की हर जिद और लालसा पूरी करना भी सही नहीं है। थोडा डाँट-डपट और उल्टा-सीधा खाने में अनुशासन भी होना चाहिये।

प्रणाम

फ़िरदौस ख़ान said...

अच्छा आलेख है...अनुशासन बहुत ज़रूरी है...

अजित गुप्ता का कोना said...

संगीता जी, असल में पूर्व में हम परिवार को सबकुछ मानते थे और व्‍यक्तिगत कुछ नहीं था लेकिन अब परिवार कुछ नहीं है और व्‍यक्तिगत सबकुछ। इसलिए माता-पिता अपने बच्‍चों का विकास व्‍यक्तिगत रूप से कर रहे हैं उन्‍हें ऐसे सांचे में ढाल रहे हैं जिससे ज्‍यादा से ज्‍यदा अर्थ निकले। बस एक मशीन जो पैसा कमाती हो। आज के माता-पिता को समझ नहीं आ रहा है कि हम ही अपने लिए कांटे बो रहे हैं और बच्‍चों को परिवार से दूर कर रहे हैं। लेकिन अब लोगों को समझ आने लगा है और हो सकता है कि परिवर्तन हो।

Patali-The-Village said...

आप ने सही लिखा है|

बच्चों कि उलटी सीधी जिद्द पूरी करना गलत है|

Arvind Mishra said...

आज मानवता बची खुची है तो इसका श्रेय हमें परम्पराओं से अपने पूर्वजों के सतत मार्गदर्शन को भी जाता है -
बहुत सुन्दर आलेख !

rashmi ravija said...

मेरे दिल की बात कह दी..संगीता जी,
प्यार के साथ,..अनुशासन की भी बहुत जरूरत है...मैने भी इसी विषय पर एक पोस्ट लिखी थी...और वो अखबार में भी छप गयी...
पैरेंट्स की प्यार भरी सुरक्षा किसी पेड़ जैसी हो या शामियाने जैसी ?? http://rashmiravija.blogspot.com/2010/10/blog-post_07.html

ABHISHEK MISHRA said...

आप ने कहा

''आरंभिक दौर में हर आनेवाली पीढी पिछले पीढी को विचारों में कहीं न कहीं कमजोर मानती है, क्‍यूंकि उसका ज्ञान अल्‍प होता है। जैसे जैसे उम्र और ज्ञान का दौर बढता जाता है , पुरानी पीढी द्वारा कही गयी बातों में खासियत दिखाई देने लगती है''

आप की बात से अक्षरशः सहमत
मुझे भी पहले ऐसा ही लगता था .

Coral said...

आपने सही कहा है ....

शायद पहले ये कभी महसूस नहीं कर पाई! मा कि डाट हमेशा बहुत दिनों तक कहलती रही थी , पर आज जब माँ बनी हू तो उनके दिए हुए संस्कार ही अपने बेटी में देना चाहूंगी !

आपका लेख प्रशंसनीय है ...बधाई

honesty project democracy said...

बहुत ही अच्छी सार्थक और प्रेरक प्रस्तुती...

डॉ. मोनिका शर्मा said...

Bilkul theek baat kahi aapne.... poori tarah se sahmat hun....

कुमार राधारमण said...

आर्थिक समीकरण के कारण हमने थोड़ा पाया और बहुत कुछ गंवाया है। एक कसक हम सब के भीतर है मगर समय के चक्र को उलटना संभव न होगा। लिहाजा,अभिभावकों को भी परिस्थितियों के अनुरूप स्वयं को तैयार रखने की आदत डालनी होगी।

Udan Tashtari said...

हम जैसा बोएंगे,वैसा ही काटेंगे

-बस, सबको इतना ही समझना है.